सातवां पहर/संपादक-विक्की तम्बोली
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कोरोना वायरस अब शहरों से निकलकर, गांव व घरों तक पहुंच चुका है, फिर भी सड़कों पर बेखौफ घुम रहे लोगों की वजह से यह संक्रमण फैलता ही जा रहा, मुट्ठी भर लोगों की वजह से ही स्थिति खराब हो रही है, ऐसे लोग जो बगैर मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किये बेधडक घुम रहे हैं उन्ही की वजह से आज हम अपनो को खो रहे हैं, कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा भी तेजी से बढ़ता जा रहा है और ये मुट्ठी भर लोग फिर भी नहीं चेत रहे हैं जैसे हमारी जिंदगी इनकी बपौती हो।

कोरोना मरीजों के लगातार बढते आंकड़े और लापरवाह बने लोगों ने एक बात तो स्पष्ट कर ही दी कि इन्हे न तो समाज की चिंता है न ही अपने परिवार की और न ही खुद की। कोरोना के चलते पिछले 6 महीनो से पूरा देश आर्थिक तंगी की मार झेल रहा है ऐसे में बार बार लाॅकडाउन का फैसला कहां तक सही है, अगर लाॅकडाउन का पालन शुरूवात में ही सही से किया गया होता तो शायद हम अब तक इस महामारी से उबर चुके होते, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरित। अब थोड़ा सा पीछे चलते हैं और ये जानते हैं कि आखिर अब तक इस वायरस से हमे निजात क्यों नही मिली।

टीवी पर आकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संबोधन कि 1 दिन का जनता कार्फ्यू फिर उसी रात को 21 दिनो का लाॅकडाउन घोषित कर दिया गया, उनके मास्टर प्लान को सबने समझा भी और कुछ दिनो तक सख्ती से पुलिसवालों ने इसका पालन भी कराया लेकिन फिर हुआ क्या? हुआ ये कि खुद के घर जाने के लिए प्रवासी मजदूर सड़कों पर उतर आए, जबकि प्रधानमंत्री ने सभी राज्यों को निर्देशित किया था कि यथासंभव हर मदद देते हुए उन मजदूरों को वहीं रखा जाए ताकि कोरोना की चेन टूट जाए और 21 दिनो में हम ये जंग जीत जाए लेकिन हुआ इसके ठीक विपरित।

लाॅकडाउन पर फैसला सुनाने वाले बदले, पर फैसला नही बदला..

सबसे पहले लाॅकडाउन पर फैसला प्रधानमंत्री ने लिया, फिर लिया राज्य के मुख्यमंत्रियों ने और उसके बाद जिला कलेक्टरों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई। लेकिन इस बात पर किसी ने ध्यान नही दिया कि लाॅकडाउन के दौरान मध्यमवर्गीय व गरीब परिवार कैसे अपना गुजर बसर करेगा। प्रशासन ने तो आदेश जारी कर अपना फैसला सुना दिया और पूर्णतया तालाबंदी कर दी। लेकिन इस बारे में किसी ने भी एक बार भी नही सोचा कि बार बार के लाॅकडाउन से लोगों की माली हालत खराब हो चुकी है ऐसे में लोग कोरोना से मरे न मरे भूखमरी से भी तो मर सकते हैं। खैर ऐसा सोचना प्रशासन की मजबूरी भी नही है।

वायरस भी ढीट है हमारी तरह..

आज 01 दिन के लिए मुंगेली जिला अनलाॅक किया गया है उसके बाद पुनः 25 सितंबर से 30 सितंबर के लिए पूर्णतया तालाबंदी का आदेश जारी किया गया है जो सिर्फ नगरीय निकायों के लिए है, लेकिन लोगों की भीड़ ने ऐसा नजारा दिखा दिया है जैसे फिर से एक बार गांव व शहर सब बंद हो रहे हैं। लोगों की ऐसी प्रवृत्ति ने ही इस वायरस को पनपा रखा है और हमे भी यह समझा दिया है कि यह वायरस भी ढीट है हमारी तरह..

कहां गए वो मजदूर जो लौट आए थे अपने आशियाने में

प्रवासी मजदूर जिन्होने कोरोना के डर से हजार किलोमीटर तक का फासला पैदल तय किया, कई स्वयंसेवी संगठनों एवं शासन प्रशासन ने भी उन तक हर संभव मदद पहुंचाने का प्रयास किया, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि वे प्रवासी मजदूर अब कहां गये? क्या प्रशासन को इसकी सुध है? क्योंकि अधिकतर मजदूर वापस फिर कमाने खाने अन्य राज्य चले गये, उनकी भी मजबूरी थी क्योंकि यहां उन्हे रोजगार कौन देता? इस मामले में प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिए थी? और क्या भूमिका प्रशासन निभा रहा ? यह एक बड़ा सवाल है।

औपचारिकता की तरह ही नजर आता है लाॅकडाउन, शराब दुकानें रहती हैं खुली


लाॅकडाउन अब धरातल पर औपचारिकता मात्र ही नजर आ रहा, वजह ये कि आदेश तो पूर्णतया तालाबंदी का है, फिर शराब दुकाने क्यों खुली है ? क्या शराब खरीदने, बेचने एवं पीने वालों को कोरोना नहीं होता ? ये तो प्रशासन ही जाने कि लाॅकडाउन का अधिकारिक मतलब क्या होता है क्योंकि हमे तो यही समझ आ रहा कि राशन, खाने पीने की चीजों से ही कोरोना फैल रहा, यही कारण है कि दुकानों को बंद कराने का आदेश जारी किया गया है। बहरहाल यह स्पष्ट है कि आप स्वयं ही अपनी रक्षा कर सकते हैं सतर्क रहकर, बेवजह न घुमकर इसके अलावा मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग का कडाई से पालन करके आप खुद का ख्याल रख सकते हैं। कोई और नहीं..

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